OBC आरक्षण को चुनौती : उच्च शिक्षा में सामाजिक न्याय पर हमले की एक और साजिश
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दोस्तों, मोदी राज के पिछले छह वर्षों में लम्बे संघर्ष से हासिल किये गए सामाजिक न्याय पर अभूतपूर्व हमले के हम गवाह रहे हैं। शिक्षा, नौकरी और अन्य अवसरों में हाशिये के तबकों के लिए आरक्षण के मौजूदा रास्तों को बंद और कमजोर करने के लगातार कोशिश की गई है। हमने देखा है कि कैसे 5 मई, 2016 यूजीसी अधिसूचना द्वारा छात्र-शिक्षक अनुपात के नाम पर, एम फिल/पीएचडी प्रवेश में बड़े पैमाने पर सीट-कटौती और आरक्षण समाप्ति की नीति थोपी गई। फैकल्टी पोस्ट पर आरक्षण को ख़त्म करने के लिए 200 पॉइंट रोस्टर प्रणाली की जगह 13 पॉइंट रोस्टर प्रणाली को लागू करने की कोशिश की गई। निस्संदेह वर्तमान सत्तारूढ़ शासन ने सामाजिक न्याय विरोधी और आरक्षण विरोधी ताकतों को मजबूत किया है।
कुछ दिन पहले, सेंट्रल एजुकेशनल इंस्टिट्यूशंस (CEI) एक्ट 2006, के मौजूदा प्रावधानों को समाप्त करने की फिर से कोशिश की गई जो 93 वें संवैधानिक संशोधन के माध्यम से प्रभावित हुआ और जिससे उच्च शिक्षा में अनिवार्य 54% सीट वृद्धि के साथ 27% OBC आरक्षण की नीति बनी थी। यह अधिनियम एक लंबे संघर्ष के बाद 2008 में लागू हुआ। हाल ही में, दिल्ली उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की गई है, जिसमें केंद्रीय शैक्षणिक संस्थानों, विशेषकर जेएनयू में पोस्ट ग्रेजुएशन पाठ्यक्रमों में ओबीसी उम्मीदवारों के लिए 27% आरक्षण के प्रावधान को चुनौती दी गई है। याचिका में मुख्य दलील यह है कि ‘ओबीसी के लिए आरक्षण’ केवल बीए तक ही दिया जाना चाहिए, इससे आगे नहीं; क्योंकि बीए पूरा कर लेने वाले छात्र आगे आरक्षण का लाभ उठाने के लिए “शैक्षिक रूप से पिछड़े” के रूप नहीं गिने जा सकते हैं! दिल्ली उच्च न्यायालय ने इसपर केंद्र सरकार के साथ-साथ JNU से भी 2 हफ्ते में जवाब देने के लिए हलफनामा दाखिल करने को कहा है। 27% ओबीसी आरक्षण को चुनौती देने वाली इस याचिका में नाम-मात्र का भी तर्क नहीं है बल्कि एक विचित्र मनमानापन है।
सबसे पहले, जेएनयू या किसी भी केंद्रीय शिक्षा संस्थान में सभी पाठ्यक्रमों (स्नातक, स्नातकोत्तर और अनुसंधान स्तर) के लिए सीटों की संख्या के 93वें संशोधन द्वारा CEI एक्ट 2006 द्वारा तय की गई है, जिससे उच्च शिक्षण संस्थानों में अनिवार्य 54% सीट वृद्धि के साथ 27% ओबीसी आरक्षण की शुरुआत हुई। जब उच्च शिक्षा में ओबीसी आरक्षण पर यह कानून 2006 में आया, तब ABVP समेत अन्य दक्षिणपंथी संगठनों की साझेदारी से रातोंरात यूथ फॉर इक्वलिटी (YFE) नाम का एक घोर जातिवादी और सांप्रदायिक समूह का गठन किया गया। इन्होंने देश और कैम्पसों में आरक्षण विरोधी उन्माद पैदा किया और इस अधिनियम को चुनौती देते हुए सर्वोच्च न्यायालय तक गए। लेकिन अप्रैल 2008 में, सर्वोच्च न्यायालय की 5 सदस्यीय संवैधानिक पीठ ने इस अधिनियम को मान्य करार दिया। तो अब संसद द्वारा पारित एक अधिनियम और 2008 में सर्वोच्च न्यायालय की 5 न्यायाधीशों की संविधान पीठ के निर्णय को दरकिनार करने वाली यह याचिका क्यों ? इसका उत्तर बहुत स्पष्ट है: भाजपा-संघ राज में निर्मित जनविरोधी, गरीब-विरोधी फासीवादी राजनीतिक माहौल में जातिवादी और सामाजिक न्याय विरोधी ताकतों को बल मिला है!
दूसरी बात, याचिका में यह तर्क दिया गया है कि चूंकि आरक्षण ‘सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों’ के लिए लागू है और पोस्ट ग्रेजुएशन के लिए आवेदन करने वालों ने पहले ही अपना ग्रेजुएशन पूरा कर लिया है, इसलिए उन्हें शैक्षिक रूप से पिछड़ा नहीं माना जा सकता है! यह बात उस अधिनियम की मूल भावना के खिलाफ है जो उच्च शिक्षा के पूरे स्पेक्ट्रम में ओबीसी आरक्षण सुनिश्चित करने की बात करता है। हम याद दिलाना चाहते हैं कि ‘स्नातक’ उच्च शिक्षा की सीढ़ी का पहला कदम है, और इसलिए सिर्फ ‘स्नातक’ की डिग्री छात्रों को हाशिए की पृष्ठभूमि से मुक्त कर शैक्षिक रूप से ‘अगड़ा’ नहीं बनाती है।
आरक्षण ख़त्म करने के तमाम हथकंडे: हम तब भी लड़ें थे, हम फिर लड़ेंगे
कट-ऑफ क्राइटेरिया की गलत व्याख्या (2008-2010): सुप्रीम कोर्ट द्वारा 2008 में ओबीसी आरक्षण को मान्यता देने के बाद विभिन्न विश्वविद्यालयों और संस्थानों में प्रशासनिक पदों पर बैठे जातिवादी ताकतों ने ओबीसी आरक्षण को ठीक से लागू नहीं होने देने की नियत से साजिश रची! सर्वोच्च न्यायालय ने 27% ओबीसी आरक्षण को बरकरार रखते हुए सुझाव दिया था कि प्रवेश में, ओबीसी और अनारक्षित श्रेणियों के लिए ‘कट-ऑफ’ के बीच का अंतर 10% से अधिक नहीं होना चाहिए। तत्कालीन जेएनयू वीसी और उसके प्रशासन ने इस ‘कट-ऑफ’ मानदंड की गलत व्याख्या की, ओबीसी सीटें खाली रखने और फिर उन्हें सामान्य श्रेणी में स्थानांतरित करने की चाल चली। कागज पर बने ओबीसी आरक्षण कानून को जमीन पर न उतरने देने की यह एक शातिर चाल थी!
लेकिन तब आइसा के नेतृत्व वाले तत्कालीन जेएनयू छात्रसंघ ने पहले ही दिन से ‘कट-ऑफ’ मानदंड की जातिवादी और गलत व्याख्या को पहचाना तथा इसके खिलाफ तीन साल (2008-11) की एक लंबी लड़ाई लड़ी। 3 साल के लंबे राजनीतिक और कानूनी संघर्ष के बाद YFE और JNU प्रशासन के खिलाफ हमने दिल्ली उच्च न्यायालय में (7 सितंबर 2010 को) और सुप्रीम कोर्ट (18 अगस्त 2011 को) में जीत हासिल की! इसके बाद ही 27% ओबीसी आरक्षण को सही तरीके से लागू करवाया जा सका; न सिर्फ जेएनयू में बल्कि पूरे देश में।
5 मई 2016 यूजीसी नोटिफिकेशन के बहाने सीट कटौती और आरक्षण पर हमला: एक बार फिर से सीटों में कटौती और आरक्षण को कमजोर करने की साजिश 2016-17 में की गई। वर्तमान जेएनयू वीसी ने केंद्र सरकार के समर्थन से 5 मई 2016 के यूजीसी अधिसूचना के बहाने और CEI एक्ट 2006 का उल्लंघन कर जेएनयू जैसे केंद्रीय विश्वविद्यालय में सीटों की कटौती और आरक्षण पर हमला किया।
स्पष्टत: जेएनयू छात्र समुदाय ने ‘कट-ऑफ’ की गलत व्याख्या का पर्दाफाश किया और सतत संघर्ष (2008-11 के दौरान) कर ओबीसी आरक्षण को निष्प्रभावी बनाने की सामाजिक न्याय विरोधी ताकतों के मंसूबों को ध्वस्त किया। यही कारण है कि, आज सत्ता में बैठे दक्षिणपंथी जातिवादी ताकतों द्वारा उकसाए गए लोग जेएनयू में फिर से ओबीसी आरक्षण को निशाना बना रहे है!
जेएनयू का छात्र आंदोलन हमेशा सामाजिक रूप से समावेशी कैम्पस के लिए तथा आरक्षण की नीतियों को बनाए रखने के लिए संघर्ष किया है। हमने एकजुट होकर इन सामाजिक न्याय विरोधी हमलों को पीछे धकेला है; आने वाले दिनों में; आरक्षण को रौंदने के किसी भी प्रयास के खिलाफ हमें सतर्क रहना चाहिए।