मोदी का 4 साल : भ्रष्टाचार बेमिसाल
यूपीए सरकार में हुए भ्रष्टाचार को प्रमुख मुद्दा बनाकर भाजपा ने 2014 का चुनाव जीता। नरेंद्र मोदी ने अपने चुनावी भाषणों में ‘ना खाउंगा, ना खाने दूंगा’ का जुमला उछाला। लेकिन आज इसकी हकीकत क्या है? पिछले चार सालों में इस देश ने बड़े-बड़े घोटाले और भाई-भतीजावाद देखा है-
नरेंद्र मोदी- चौकीदार या भागीदार? सरकार का ‘लूटो और भाग जाओ’ स्कीम
पहले ललित मोदी, फिर विजय माल्या, उसके बाद नीरव मोदी और फिर मेहुल चॉकसी को मोदी सरकार ने भारतीय बैंकों से अरबों रुपये लूट कर देश से भागने में सहायता की। नवीनतम उदाहरण पंजाब नेशनल बैंक का है, जिससे नीरव मोदी और उसके चाचा मेहुल चॉकसी ने 13,000 करोड़ रुपये से अधिक की राशि का गबन कर लिया।
यह घोटाला तब सामने आया जब नीरव मोदी फरवरी 2018 में अपने परिवार के साथ विदेश जा बसे। इस ‘लूटो और भागो’ घोटाले में मोदी सरकार की सहायता 3 महत्वपूर्ण तथ्यों से स्पष्ट हो जाते हैं- (1) प्रधानमंत्री कार्यालय में 2016 से ही नीरव मोदी और चॉकसी के खिलाफ शिकायत दर्ज है, इसके बावजूद भारत छोड़ने के बाद नीरव मोदी प्रधानमंत्री मोदी के साथ दावोस में विश्व आर्थिक सम्मेलन के मंच पर साथ आए थे। (2) सीबीआई ने स्पष्ट किया है कि नीरव मोदी द्वारा अधिकांश बैंक फ्रॉड और फर्जी लोन का नवीनीकरण वर्ष 2017-18 में किया गया। (3) जुलाई 2018 में एंटीगुआ सरकार ने कहा कि उसने मेहुल चोकसी को नागरिकता इसलिए दी क्योंकि भारत ने विदेश जाकर बसने की उनकी कागजी कार्यवाई में कोई रूकावट नहीं डाला। हालांकि तब चोकसी के खिलाफ कॉर्पोरेट मामलों के मंत्रालय, मुंबई पुलिस, अहमदाबाद आर्थिक अपराध शाखा, प्रधानमंत्री कार्यालय और सेक्यूरिटीज एंड एक्सचेंज बोर्ड ऑफ इंडिया में शिकायतें दर्ज थी।
नीरव मोदी-मेहुल चॉकसी घोटाले के तुरंत बाद 7 बैंकों से 3,700 करोड़ रुपये का रोटोमेक घोटाला सामने आया।
पीएनबी और रोटोमेक धोखाधड़ी उजागर होने के 7 दिनों के भीतर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में सरकार के अपने निवेश पर लगभग 30,000 करोड़ रुपये का नुकसान उठाना पड़ा। (ToI, 21 फरवरी, 2018)
जब चोर लूट की रकम लेकर भाग रहा था तब क्या हमारा स्वघोषित चौकीदार नरेंद्र मोदी सो रहे थे, या चौकीदार भी चोर को सुरक्षित भगाने में भागीदार था!
जियो इंस्टीच्यूट ऑफ एमिनेंसः अस्तित्व में आए बिना ही हो गए ‘एमिनेंट’
मोदी सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा स्थापित एम्पावर्ड एक्सपर्ट कमिटी (EEC) ने रिलायंस फाउंडेशन के उस ‘जियो इंस्टीच्यूट’ को ‘इंस्टीच्यूट ऑफ एमिनेंस’ का अवार्ड दे दिया जो अब तब अस्तित्व में भी नहीं है। यह मोदी मॉडल की सरकार के भाई-भतीजावाद का चौंकानेवाला उदाहरण है।
तथ्य बताते हैं कि एमएचआरडी ने निर्माणाधीन संस्थाओं के लिए ‘ग्रीनफील्ड श्रेणी’ के लिए नियम ही ऐसे बनाए थे कि इसमें अंबानी के अलावा कोई और सफल नहीं हो पाता। इस एम्पावर्ड एक्सपर्ट कमिटी (EEC) का पहला प्रमुख पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एन. गोपालस्वामी को बनाया गया जो अब आरएसएस से संबद्ध ‘विवेकानंद एजुकेशनल सोसाइटी’ के प्रमुख हैं! इसके अलावा, विनय शील ओबेरॉय उस समय एमएचआरडी के सचिव थे जब IoE (तब इसे ‘वर्ल्ड क्लास इंस्टीचयूट’ योजना कहा जाता था) की योजना पर विचार चल रहा था। बाद में ओबेरॉय मुकेश अंबानी की आठ सदस्यीय टीम का अंग बने जो जियो इंस्टीच्यूट को EEC के सामने प्रस्तुत किया।
यह भाई-भतीजावाद तब और भी स्पष्ट हो जाता है जब हम देखते हैं कि रिलायंस फाउंडेशन इंस्टीट्यूशन ऑफ एजुकेशन एंड रिसर्च (RFIER) को उसी दिन कंपनी के रूप में पंजीकृत किया गया जिस दिन यूजीसी ने प्रेस विज्ञप्ति जारी कर ‘इंस्टीच्यूट ऑफ एमिनेंस’ के लिए संस्थानों से आवेदन आमंत्रित किया।
IoEs के नियमों को कांट-छांट कर सिर्फ़ अंबानी के लिए तैयार किया गया था। जैसे एक नियम यह बनाया गया कि प्रस्तावित संस्थान के ‘प्रायोजक संगठन’ के सदस्य के पास व्यक्तिगत रूप से 50 अरब रुपये से अधिक की सामूहिक राशि होनी चाहिए। मुकेश अंबानी जैसे चंद लोगों के अलावा इस विशाल संपत्ति के होने का दावा भला कौन कर सकता है? एक अन्य नियम के तहत कहा गया कि संगठन के पास किसी भी क्षे़त्र में (जरूरी नहीं कि उच्च शिक्षा के ही क्षेत्र में) योजनाओं को वास्तविक उपलब्धियों में तब्दील करने का ट्रैक रिकॉर्ड होना चाहिए। ऐसे शर्तों ने सुनिश्चित कर दिया कि उच्च शिक्षा में शून्य अनुभव होने के बावजूद, रिलायंस ‘एमिनेन्स’ के लिए दावा कर सकता है!
IoEs के चयन की पूरी प्रक्रिया में नियमों का खुलेआम उल्लंघन हुआ। EEC ने स्वयं स्वीकार किया है कि अपने चयन प्रक्रिया में उसने न तो किसी क्षेत्र का दौरा किया, न तो सारणी मूल्यांकन किया और न ही उच्च शिक्षा संस्थानों की रैंकिंग की, जोकि यूजीसी के दिशा-निर्देशन के अनिवार्य अंग थे।
इस बीच, मोदी सरकार का एक और चहेता कॉर्पोरेट घराना वेदांता समूह के उड़ीसा में प्रस्तावित विश्वविद्यालय को ‘इंस्टीच्यूट ऑफ एमिनेंस’ के लिए आवेदन करने की समय सीमा को एक महीने बढ़ा दिया गया है।
अब सवाल यह है कि रिलायंस और वेदांता का शिक्षा के प्रति क्या दृष्टिकोण है? IoE का टैग वाले संस्थानों को ‘स्वायत्तता’ मिल जाएगी- यानी संस्थान को अत्यधिक शुल्क लेने और आरक्षण न देने की स्वतंत्रता होगी। मुंबई स्थित धीरूभाई अंबानी इंटरनेशनल स्कूल कक्षा एलकेजी के लिए प्रति वर्ष 2.05 लाख रुपये तथा कक्षा 11 और 12 के लिए प्रति वर्ष 9.65 लाख रुपये की फीस उगाही करता है। इसलिए इसमें सिर्फ़ अमीरों के बच्चे ही पढ़ते हैं। सरकार को दिए अपने आवेदन में रिलायंस पफाउंडेशन ने ‘जियो इंस्टीच्यूट’ द्वारा पहले वर्ष में लगभग 1,000 छात्रों का दाखिला कर ट्यूशन फीस और छात्रावास शुल्क से 100 करोड़ रुपये की कमाई का अनुमान लगाया है (प्रति छात्र 10 लाख रुपये का वार्षिक शुल्क)।
राफेल डील- छोटे अंबानी के साथ सरकार का भाई-भतीजावाद
एक ओर उच्च शिक्षा में IoE टैग का फर्जीवाड़ा सामने आता है, वहीं दूसरी ओर, इसी बीजेपी सरकार द्वारा फ़्रांसीसी कंपनी ‘डास्सो एविएशन’ (Dassault Aviation) के साथ हुए राफेल लड़ाकू जेट के सौदे में हुए भारी घोटाला सामने आ चुका है। एक ओर, मुकेश अंबानी की कंपनी को उच्च शिक्षा में शून्य अनुभव के बावजूद IoE का खिताब मिला जाता है तो दूसरी ओर, अनिल अंबानी की कंपनी को रक्षा क्षेत्रा में शून्य अनुभव होने के बावजूद रक्षा सौदों का टेंडर दिया गया; वह भी सरकारी क्षेत्र की Hindustan Aeronautics Limited (HAL) से छीनकर!
‘राफेल डील’ का तथ्य क्या हैं? इसका पिछला सौदा यूपीए सरकार के दौरान हुआ था जिसके तहत 54,000 करोड़ रुपये की लागत से 126 राफेल जेट खरीदने की बात थी। इन 126 राफेल जेट में से 18 ‘उड़ान के लिए तैयार’ जेट होंगे, जबकि बाकी जेटों को निर्माण ‘डास्सो एविएशन’ कंपनी द्वारा ‘बाध्यकारी रूप से दी जाने वाली तकनीक’ के आधार पर सार्वजनिक क्षेत्र की Hindustan Aeronautics Limited (HAL) द्वारा किया जाना था। इस सौदे को रद्द कर मोदी सरकार ने 10 अप्रैल, 2015 को रातोंरात एक नए सौदे पर हस्ताक्षर किया जिसमें 36 ‘उड़ान के लिए तैयार’ राफेल जेट को 58,000 करोड़ रुपये में खरीदने की बात हुई, अर्थात प्रति जेट 540 से बढाकर 1640 करोड़ रु कर दिए गए। तकनीक का हस्तांतरण का शर्त इस नए सौदे से हटा दिया गया। अनिल अंबानी की कंपनी रिलायंस डिफेंस लिमिटेड (RDL) सौदा होने से महज़ 2 सप्ताह पहले पंजीकृत होती है तथा प्रधानमंत्री की फ़्रांस यात्रा में वे मोदीजी के साथ जाते हैं। इसके बाद अनिल अंबानी की यह कंपनी डास्सो की साझेदार हो जाती है, दूसरी ओर उसे 30,000 करोड़ रुपये का ‘ऑफ सेट कॉन्ट्रेक्ट’ भी मिल जाता है।
तो आइये, इन तथ्यों को समेंटें- जैसे ‘रिलायंस फाउंडेशन इंस्टीट्यूशन ऑफ एजुकेशन एंड रिसर्च (RFIER) का पंजीकरण ‘इंस्टीच्यूट ऑफ एमिनेंस’ का टैग लेने के लिए किया गया, वैसे ही रिलायंस डिफेंस लिमिटेड (RDL) को रक्षा सौदे में ‘ऑफ सेट कॉन्ट्रेक्ट’ देने तथा राफेल में ‘उत्पादन साझेदारी’ मिलने के लिए पंजीकृत किया गया। एक अनुभवी और सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी (HAL) को नकारकर अनुभवहीन और सिर्फ़ दो सप्ताह पहले बनी कंपनी RDL को क्यों चुना गया? पिछले सौदे की तुलना में मोदी सरकार के सौदे में भारत को ढाई गुना अधिक रकम क्यों देना पड़ गया? नए सौदे में ‘तकनीक स्थानांतरण’ की शर्त क्यों हटा दी गई जो कि पहले सौदे में थी?
‘गोपनीयता’ का फर्जी बहानाः राफेल सौदे की धांधली पर संसद में प्रश्न उठने पर मोदी सरकार ने दावा किया कि रक्षा सौदे में मूल्य विवरण प्रकट करने से राष्ट्रीय सुरक्षा प्रभावित होगी। यह कोरा बकवास है!
राफेल डील की गोपनीयता का नियम भारत और फ़्रांस के बीच 2008 के सुरक्षा समझौते पर आधरित है। यह समझौता उन ‘विशेष सूचनाओं’ से संबंधित है जो ‘रक्षा उपकरणों की सुरक्षा और परिचालन क्षमताओं को प्रभावित कर सकता है’। यह बिक्री मूल्य को सार्वजनिक करने से नहीं रोकता है। यहां तक कि फ़्रांस की सरकार ने भी स्पष्ट कर दिया है कि मोदी सरकार विपक्ष द्वारा मांगे जा रहे ब्योरे को बताने के लिए स्वतंत्र है। (इंडिया टुडे, 8 मार्च, 2018)
वैसे भी, मोदी सरकार द्वारा ‘गोपनीयता’ का बहाना काफी देर से ढूंढ कर निकाला गया। इससे पहले, सरकार ने इस ‘डील’ के तुरंत बाद रक्षा क्षेत्र के पत्रकारों को कीमत की रकम को अलग-अलग हिस्सों में बांटकर बताया था। रक्षा राज्यमंत्री ने नवंबर 2016 में संसद में इसकी कीमत का खुलासा भी किया था। प्रशांत भूषण ने सरकार के दावे पर तब कहा था- ‘आपकी कार की कीमत 10 लाख है लेकिन सीट 20 लाख की है।’ यहां तक कि 17 नवंबर 2017 को अपने प्रेस कॉन्फ्रेंस में रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण ने आश्वासन दिया कि 36 राफेल जेटों की सही कीमत सार्वजनिक की जाएगी। इसके बाद संसद में रक्षा मंत्री अपनी ही बात से पलटते हुए कहती हैं कि ‘गोपनीयता शर्त’ के कारण कीमत का खुलासा नहीं किया जा सकता है और इससे हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा प्रभावित होगी! आख़िर ‘गोपनीयता शर्त’ के नाम पर सरकार क्या छिपा रही है?
प्रक्रियाओं का उल्लंघनः राफेल डील से न केवल सार्वजनिक राजकोष को भारी नुकसान हुआ, बल्कि रक्षा खरीद की प्रक्रियाओं का शर्मनाक तरीके से उल्लंघन भी किया गया है। उदाहरण के लिए, सौदे की घोषणा से पहले, कैबिनेट कमेटी ऑफ सिक्योरिटी (CCS) से आवश्यक मंजूरी नहीं ली गई थी।
घोटाला-दर-घोटाला- रिलायंस एयरोस्ट्रक्चर लिमिटेड, रिलायंस की एक सहायक कंपनी है। रक्षा मंत्रालय ने इस कंपनी को लड़ाकू विमानों का निर्माण करने का लाइसेंस प्रदान किया है। लेकिन चौंकाने वाली बात यह है कि इस कंपनी के पास लाइसेंस मिलने की तारीख (22 फरवरी, 2016) तक न तो अपनी कोई जमीन थी और न ही इमारत! तब लड़ाकू विमानों का निर्माण करने के लिए लाइसेंस कैसे प्राप्त हुआ? क्या सरकार ने लाइसेंस देने से पहले इन बुनियादी तथ्यों तक की जांच नहीं की?
रिलायंस एयरोस्ट्रक्चर लिमिटेड कंपनी 24 अप्रैल, 2015 को सामने आयी- मोदी सरकार द्वारा फ़्रांसीसी कंपनी ‘डास्सो एविएशन’ से सौदा के सिर्फ 14 दिन बाद। अर्थात्, एक रिलायंस कंपनी सौदा से दो हफ्ता पहले पंजीवृफत होती है और दूसरी सौदा के दो हफ्ते बाद अस्तित्व में आती है; और दोनों को अनुबंध मिल जाता है!
झूठ और फरेब का सिलसिलाः रक्षा ऑफ सेट अनुबंध के बारे में सरकार झूठ परोसने में लगी हुई। 16 फरवरी 2017 को एक प्रेस विज्ञप्ति में रिलायंस डिफेंस लिमिटेड (RDL) ने दावा किया कि उसे ‘डास्सो एविएशन’ से 30,000 करोड़ रुपये का ऑफसेट अनुबंध मिला है, साथ ही 1,00,000 करोड़ रुपये का ‘लाइफ साइकल कॉस्ट कॉंट्रक्ट’ भी। स्वयं ‘डास्सो एविएशन’ ने भी अपने वार्षिक रिपोर्ट 2016-17 में इन ऑफसेट अनुबंध के बारे में बताया। लेकिन 7 फरवरी, 2018 को, रक्षामंत्री निर्मला सीतारमण ने प्रेस सूचना ब्यूरो (PIB) द्वारा जारी पत्र में दावा किया कि ‘‘36 राफेल विमान के इस सौदे में विक्रेता ने किसी भारतीय ऑफ सेट पार्टनर को नहीं चुना है’’!! तो, क्या रक्षा मंत्री तक को 1 लाख 30,000 करोड़ रुपये के इस महत्वपूर्ण अनुबंध के बारे में नहीं पता था? क्या रक्षा मंत्री की मंजूरी के बिना ही रिलायंस और ‘डास्सो एविएशन’ ने इतने बड़े अनुबंध पर हस्ताक्षर कर दिया? या क्या सरकार अनिल अंबानी के पक्ष में इस शर्मनाक ऑफ सेट अनुबंध को ढंकने के लिए बेचैन होकर झूठ बोल रही है?
झारखंड में अडानी से लेकर तमिलनाडु में वेदांता तकः मोदी सरकार द्वारा चहेते कॉर्पोरेट्स के लिए नियमों की धज्जियाँ:
भाजपा शासित झारखंड में 2016 में ऊर्जा नीति में इसलिए संशोधन किया गया ताकि मोदी के चहेते और भाजपा को फंडिंग करने वाले गौतम अडानी की कंपनी को लाभ पहुंचाया जा सके । जिसके कारण राज्य को अन्य थर्मल परियोजनाओं के मुकाबले अडानी की कंपनी को ज्यादा कीमत देना पड़ा। झारखंड के राज्य एकाउंटेंट कार्यालय के ऑडिट रिपोर्ट में पाया गया है कि अडानी के साथ समझौता करना सरकार द्वारा ‘पक्षपातपूर्ण व्यवहार’ है और जिसके कारण कंपनी को ‘अनुचित लाभ’ मिला है। (Scroll.in] 12 जून 2018)
इतना ही नहीं, झारखंड सरकार ने अडानी परियोजना के लिए ग्रामीणों से भूमि अधिग्रहित करने के दौरान, उचित मुआवजा और पारदर्शिता का अधिकार, पुनर्वास और पुनर्स्थापन अधिनियम, 2013 और आदिवासियों की जमीन की रक्षा करने वाली संथाल परगना टेनेंसी अधिनियम की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाई।
नोटबंदी, ‘जमा रकम’ और अमित शाह
नोटबंदी की घोषणा के 5 दिन बाद, जिला सहकारिता बैंकों द्वारा प्रतिबंधित नोटों को लेने पर रोक लगा दी गई, ताकि ‘मनी लॉड्रिंग’ रोका जा सके । लेकिन इन पांच दिनों में वैसे सहकारिता बैंक ‘नोटबदली’ के चोर दरवाजे बने जिसके डायरेक्टर अमित शाह जैसे भाजपा के नेता थे!
- अहमदाबाद का जिला सहकारिता बैंक, जिसके डायरेक्टर अमित शाह थे, ने 5 दिनों में सबसे अधिक कुल 745.59 करोड़ रु के प्रतिबंधित नोट बदले। यह चौंकाने वाला तथ्य मुंबई के एक आरटीआई कार्यकर्त्ता मनोरंजन एस. राव के आरटीआई से सामने आया।
- दूसरी सबसे बड़ी रकम (693 करोड़ रु) राजकोट जिला सहकारिता बैंक में जमा हुआ जिसके चेयरमैन गुजरात भाजपा सरकार के कैबिनेट मंत्री जयेशभाई विट्ठलभाई रडाड़िया हैं।
- नोटबंदी के पहले 5 दिनों में 11 जिला सहकारिता बैंक, जिनके डायरेक्टर पद पर भाजपा के शीर्ष नेता थे, ने कुल 3118.51 करोड़ रूपए के नोट बदले!
मजे की बात ये है कि कई अखबार और न्यूज पोर्टल ने इस खबर को कुछ देर तक चलाने के बाद बिना कोई कारण बताए एकाएक हटा लिया!
पीयूष गोयल और पिरामल ग्रुपः लेनदेन का माजरा-
मोदी सरकार में बिजली, कोयला, नई व नवीकरणीय ऊर्जा के स्वतंत्र प्रभारी पीयूष गोयल ने अपनी और अपनी पत्नी की कंपनी का पूरा स्टॉक अजय पिरामल के स्वामित्व वाली एक समूह फर्म को अंकित मूल्य से 1000 गुना दाम पर बेच दिया। अजय पिरामल ऊर्जा समेत इंफ़्रास्ट्रक्चर क्षेत्र में पर्याप्त रूचि लेने वाले एक अरबपति हैं। सवाल है कि उसने आखिर इतने दाम पर ऊर्जा प्रभारी पीयूष गोयल के स्टॉक किसके फायदे के लिए खरीदा! यहां तक कि गोयल ने मंत्री रहते हुए इतने बड़े आर्थिक लेनदेन की रिपोर्ट को 2014 और 2015 में पीएमओ में नहीं दर्ज करवाया, जो कि मंत्रियों के लिए अनिवार्य होता है। (द वायर, 28 अप्रैल 2018)
भ्रष्टाचार का ‘शहजादा’ एपिसोड- निर्माता-नरेन्द्र मोदी, निर्देशक-अमित शाह, मुख्य स्टार-जय अमित शाह
भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के बेटे जय अमितभाई शाह की कंपनी पहले दो सालों में (2012-2014) में नुकसान में जाने के बाद वर्ष 2014-15 में इसका टर्न ओवर एकाएक 50 हजार से बढकर 80 करोड़ हो गया। यह 16,000 गुणा की जादुई वृद्धि है! इसके बाद नोटबंदी से कुछ समय पहले अक्टूबर 2016 में उसने अपनी कंपनी ‘टेम्पल इंटरप्राइजेज’ को अचानक से बंद कर दी।
जय शाह के चमत्कार की दूसरी कड़ी में 2016 से उनको मिलने वाले ‘लोन’ में भारी उछाल आया। वित्तीय सेवा वाली उनकी एक और कंपनी ‘कुसुम फिनसर्व’ को महज 5.83 करोड़ की संपत्ति पर दो बैंकों व एक सरकारी संस्थान IREDA द्वारा कुल 97.35 करोड़ का ‘लोन’ सुविधा मिला। इसमें से 40 करोड़ के लिए उसने अमित शाह की जमीन और कार्यालय क्षेत्र को गिरवी रखा। लेकिन मजे की बात है कि अमित शाह ने इन संपत्तियों/लाइबिलिटी का दावा अपने राज्यसभा चुनाव के दौरान चुनाव आयोग के समक्ष पेश नहीं की। क्यों?
वित्तीय सेवा की कंपनी होने के बाद शाह की कंपनी को गुजरात इंडस्ट्रीयल कॉर्पोरेशन ने औद्योगिक क्षेत्र सनंद में 6 करोड़ की कीमत वाली जमीन दे दी। इतना ही नहीं, इसी जमीन को दिखाकर उसने एक अन्य बैंक से 17 करोड़ का लोन ले लिया। सवाल है कि कोई सरकारी संस्थान किसी वित्तीय सेवा वाली कंपनी को लोन के लिए अपनी जमीन कैसे दे सकता है?
इसके बाद भारत सरकार के ऊर्जा मंत्रालय के अधीन IREDA ने वायु ऊर्जा उत्पादन के नाम पर जयशाह के उस वित्तीय कंपनी को 10.5 करोड़ का लोन दिया, जबकि उनके अपने नियमों के मुताबिक यह लोन अधिकतम 5 करोड़ का ही लोन दे सकती है। आखिर ‘कुसुम फिनसर्व’ जिसे ऊर्जा उत्पादन से कोई लेना देना नहीं रहा उसे ऊर्जा निर्माण के लिए और वो भी अधिकतम सीमा को लांघकर लोन कैसे मिला? (कैरवान, 10 अगस्त 2018)
काले धन वापस लाने के मोदी के जुमलों की हकीकतः स्विस बैंकों में भारतीयों के जमा धन में 50% का उछालः
हाल में चौंकाने वाला तथ्य सामने आया कि नोटबंदी के तुरंत बाद 2017 में स्विस बैंकों में भारतीयों का जमा धनराशि 50% के उछाल के साथ 7,000 करोड़ रुपये हो गया। याद कीजिए जब मोदी और बाबा रामदेव जैसे उनके प्रचारकों ने दावा किया था कि यदि वह प्रधानमंत्री बनें तो स्विस बैंकों से काले धन वापस लाया जाएगा और देशवायिं को (15-15 लाख) वितरित किया जाएगा! लेकिन अब, काले धन वापस लाने का कोई संकेत नहीं है, उल्टे स्विस बैंकों में भारतीयों की जमा राशि बढ़ रही हैं। दूसरी ओर, मोदी सरकार के मंत्री अरुण जेटली और पीयुष गोयल (वित्त के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष मंत्री!) बेशर्मी से कह रहे हैं कि स्विस बैंकों में जमा राशि को काला या अवैध धन क्यों माना जा रहा है। (ToI, 29 जून 2018, इंडियन एक्सप्रेस, 29 जून 2018)
मणिपुर और गोवा में बीजेपी नेताओं का अवैध ड्रग व्यापार से जुड़ाव
18 जून, 2018 को, मुंबई में राजस्व खुफिया विभाग (DRI) ने गोवा भाजपा के वरिष्ठ नेता वासुदेव परब से छह घंटे से अधिक समय तक पूछताछ की। DRI द्वारा छापा मारने पर वासुदेव परब के कारखाने से भारी पैमाने पर दवाओं की जमाखोरी समेत ‘डेट रेप ड्रग’ केटामाइन मिला था। डेट रेप ड्रग एक नशीली दवा है जो सामाजिक अवसरों पर महिलाओं का बलात्कार के लिए उनकी जानकारी के बिना प्रयोग की जाती है।
20 जून, 2018 को पीटीआई ने बताया कि ‘‘मणिपुर के चंदेल जिले में स्वायत्त जिला परिषद (ADC) के अध्यक्ष और भाजपा नेता के लंखोसी ज़ौ के आधिकारिक निवास से 40 करोड़ का हेरोइन और पार्टी ड्रग्स जब्त किया गया। भाजपा नेता के घर से 13 लाख रुपये की राशि भी जब्त की गई थी।’’
इस प्रकार, जो पार्टी नोटबंदी द्वारा काले धन पर रोक लगाने का दावा कर रही थी उसी के नेताओं ने ड्रग्स का कारोबार कर अपने घरों में लाखों का काला धन जमा कर रखा है!
भ्रष्टाचार के मामलों की जांच कौन करेगा- जब सीबीआई में ही दागी और आरोपी बैठे हैं?
जुलाई 2018 में, केन्द्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) ने केन्द्रीय सतर्कता आयोग को लिखा कि ब्यूरो में उन अधिकारियों को शामिल करने के लिए कहा जा रहा है जो दागी हैं और सीबीआई द्वारा आपराधिक मामलों में आरोपी हैं! सीबीआई ने इंगित किया कि इसके दूसरे सबसे वरिष्ठ अधिकारी, विशेष निदेशक राकेश अस्थाना स्वयं कई मामलों में जांच के अधीन हैं, इसलिए, उन्हें निदेशक आलोक वर्मा की अनुपस्थिति में सीबीआई अधिकारियों की चयन प्रक्रिया में शामिल नहीं किया जा सकता है (इंडियन एक्सप्रेस, 16 जुलाई 2018)। सवाल यह है कि सरकार सीबीआई में ऐसे अधिकारियों को नियुक्त करने के लिए क्यों बेताब है जो संदिग्ध हैं और जांच के दायरे में हैं?
4 साल बाद भी कोई लोकपाल नहीं और ‘भ्रष्टाचार रोकथाम अधिनियम’ को कमजोर करना
लोकपाल अधिनियम 2013 से पारित है, लेकिन बीजेपी सरकार ने आज तक इस अधिनियम को लागू नहीं किया है! ‘व्हिस्ल ब्लॉवर्स प्रोटेक्शन एक्ट’ फरवरी 2014 में पारित होने के बावजूद आज तक लागू नहीं किया गया।
जुलाई 2018 में, मोदी सरकार ने ‘भ्रष्टाचार रोकथाम अधिनियम, 1988 को बदलकर ‘भ्रष्टाचार रोकथाम (संशोधन) विधेयक 2018’ पारित किया है। इसके जरिये भ्रष्ट सरकारी अधिकारियों की जांच शुरू करने के लिए ‘सक्षम प्राधिकारी द्वारा पूर्व अनुमति’ लेना अनिवार्य बना दिया गया। इससे पहले जांच के लिए नहीं, बल्कि सजा देने के स्तर पर ही ‘पूर्व मंजूरी’ की आवश्यकता होती थी! इस नए प्रावधन से भ्रष्ट सरकारों को अपने पसंदीदा और भ्रष्ट अधिकारियों को जांच से पूर्व ही बचा लेने का एकाधिकार मिल गया।
ई.ए.एस. शर्मा (पूर्व सचिव, आर्थिक मामलों के विभाग, वित्त मंत्रालय) ने इस संबंध् में लिखा है-
‘‘एनडीए सरकार द्वारा किए गए इन संशोधनों को अन्य भ्रष्टाचार-विरोधी कानूनों के संदर्भ में देखा जाना चाहिए। लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम (2013) को 2016 में कमजोर करते हुए सरकारी नौकरियों के परिवारों को अपनी संपत्ति का ब्योरा देने की जरूरत खत्म कर दिया गया है। 2014 में ‘व्हिस्ल ब्लॉवर्स प्रोटेक्शन एक्ट’ को कमजोर कर भ्रष्टाचार पर खुलासे को प्रतिबंधित कर दिया गया जोकि ‘आधिकारिक गोपनीयता अधिनियम’ के भी विपरीत है और इस कानून के प्राथमिक उद्देश्य को ही खत्म करता है।
चुनावी भ्रष्टाचार शासन का स्वर निर्धारित करता है। कंपनी अधिनियम में संशोधन करके राजनीतिक पार्टियों को चंदा देने की सीमा को हटा देना, चंदा देने वालों का नाम पता गुमनाम कर ‘इलेक्टोरल बॉन्ड’ के जरिये एक गैर-पारदर्शी राजनीतिक फंडिंग को बढ़ावा देना, और विदेशी राजनीतिक चंदा के प्रवाह से छानबीन खत्म करने के लिए ‘विदेशी योगदान (विनियमन) अधिनियम (FCRA) में संशोधन करना, भ्रष्टाचार के खिलाफ भाजपा के दावों के ठीक विपरीत हैं।
न तो भाजपा और न ही एनडीए में इसके सहयोगी दल आरटीआई अधिनियम में पारदर्शिता के कड़े प्रावधानों का पालन करने के इच्छुक हैं। ’’ (द प्रिंट, 25 जुलाई 2018)
निष्कर्ष- भाई-भतीजावाद मोदी सरकार की पहचान बन गई है। अडानियों और अंबानियों को सरकारी ऋण चुकाने की समय-सीमा को अनिश्चितकाल तक बढ़ाने की अनुमति है और उनके मुनाफे के लिए काट-छांट कर कानून और नियम बनाए गए हैं। दूसरी तरफ , नीरव मोदी और माल्याओं को सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को लूटने तथा लूट की रकम को लेकर विदेश भाग जाने की छूट है।
इस चरम भाई-भतीजावाद को कवर करने वाले पत्राकारों को खमोश करने की हर कोशिश की जा रही है, जबकि ‘गोदी मीडिया’ इस तरह के भ्रष्टाचार पर सरकार से जवाब मांगने के बजाय जनता को मुद्दे से भटकाने के लिए हिंदू-मुस्लिम बहस और फर्जी खबर चला रही है।
चूंकि प्रमुख और बड़े मीडिया घराने भ्रष्टाचार के आरोपों को दबाकर सरकार को बचा रहे हैं, इसलिए भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार का पर्याय बन चुके मोदी सरकार के कंपनी राज का पर्दाफाश अब भारत की जनता को ही करनी होगी।
To support AISA, Click here to donate.