“स्वायत्तता” की घोषणा का यह दिन उच्च शिक्षा के लिए सबसे काला दिन है!
शैक्षिक संस्थानों के लिए स्वायत्तता की प्रकाश जावड़ेकर की घोषणा : सस्ती उच्च शिक्षा को ध्वस्त करने का निर्णायक पैंतरा!
मिस्टर जावड़ेकर, “स्वायत्तता” की घोषणा का यह दिन ऐतिहासिक नहीं बल्कि भारत की उच्च शिक्षा के लिए सबसे काला दिन है!
20 मार्च 2018 के दिन, मानव संसाधन एवं विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने एक प्रेस वार्ता आयोजित कर 62 विश्वविद्यालयों और 8 कॉलेजों (जिन में जेएनयू, बीएचयू और एचसीयू सहित पाँच केन्द्रीय विश्वविद्यालय शामिल हैं) को स्वायत्तता देने की घोषणा कर दी। उन्होंने कहा, “ आज का दिन भारतीय उच्च शिक्षा के लिए ऐतिहासिक है। इन बेहतरीन संस्थानों को पूर्ण स्वायत्तता मिलेगी जिससे कि वे नए पाठ्यक्रम भी शुरु कर सकेंगे…”
लेकिन उन्होंने प्रेस वार्ता में यह नहीं कहा कि ये संस्थान नए पाठ्यक्रम शुरु करने के लिए “सरकार से फण्ड की माँग नहीं कर सकते” (12 फरवरी 2018 के गजट नोटिफिकेशन के अनुसार )। इस से यह साफ ज़ाहिर होता है कि यह बहुप्रचारित “स्वायत्तता” असल में देश के श्रेष्ठ संस्थानों को वित्तीय सहायता देने की जिम्मेदारी से सरकार को मुक्त कर इन संस्थानों के प्रशासन को स्व-वित्तपोषित पाठ्यक्रम शुरु करने और फीस में जबर्दस्त बढ़ोत्तरी करने की खुली छूट देने की एक साजिश है।
भाजपा के नेतृत्व वाली यह सरकार, जो युवाओं के लिए बेहतर भविष्य और बेहतर अवसर के वायदे के साथ सत्ता में आई थी, अब देश के श्रेष्ठ शैक्षणिक संस्थानों के दरवाज़े उन बहुसंख्यक भारतीय छात्रों के लिए बंद करती जा रही है जो सैल्फ-फाइनेन्सिंग कोर्सों की फीस वहन नहीं कर सकते।
दिल्ली विश्वविद्यालय को पहले ही उसके 30 प्रतिशत फण्ड का इंतज़ाम खुद करने के लिए निर्देशित कर दिया गया है। और अब “स्वायत्तता” की आड़ में, मानव संसाधन एवं विकास मंत्रालय ने उन श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में सैल्फ-फाइनेन्सिंग की बाढ़ लाने का रास्ता साफ कर दिया है जो देश में सस्ती व गुणवत्ता युक्त उच्च शिक्षा उपलब्ध करवाने वाले कुछ बेहतरीन केन्द्र बचे रह गए थे।
जावड़ेकर की इस “स्वायत्तता” के खतरनाक निहितार्थ एकदम स्पष्ट हैं
फीस में बेपरवाह वृद्धि और सैल्फ-फाइनेन्सिंग कोर्स: इस नीति के अनुसार, “स्वायत्तता” सिर्फ तब ही दी जाएगी जब संस्थान सरकार से फण्ड की माँग न करें, यानि उन्हें फण्ड की व्यवस्था स्वयं ही करनी होगी, और परिणामस्वरुप हमें आगामी वर्षों में फीस में जबर्दस्त वृद्धि देखने को मिलेगी। नए कोर्स, जिनके लिए संस्थान को यूजीसी से मंजूरी नहीं लेनी होगी, वे सैल्फ-फाइनैन्स्ड कोर्स ही होंगे।
तथ्य यह है कि पब्लिक फंडिंग के दम पर ही ये संस्थान इतने श्रेष्ठ बन सके और हाशिए पर पड़ी सामाजिक व आर्थिक पृष्ठभूमि से आने वाले छात्रों को सस्ती व बेहतरीन शिक्षा दे सके।
इस स्वायत्तता का अर्थ तो बस यही है कि अपनी श्रेष्ठता बरकरार रखने के लिए जो बेहद आवश्यक आर्थिक सहयोग इन संस्थानों को सरकार से चाहिए होता है, उसे अब रोक दिया गया है। इसका अर्थ यह भी है कि अधिकांश भारतीय छात्रों को अब इन संस्थानों में पढ़ने का कोई भी अवसर देने से स्पष्ट इन्कार कर दिया गया है।
भारतीय छात्रों और शोधार्थियों के लिए दाखिलों और शिक्षकों के लिए भर्ती के अवसरों में भारी कमी: ये संस्थान अब वर्तमान में मंजूर की गई विदेशी शिक्षकों की संख्या में 20 प्रतिशत तक की वृद्धि कर सकेंगे। इसी तरह विदेशी छात्रों के दाखिले में भी 20 प्रतिशत तक की वृद्धि कर सकेंगे। एक ऐसे देश में, जहाँ लाखों भारतीय नौजवानों को उच्च शिक्षा प्राप्त करने के अवसर पहले से ही पर्याप्त नहीं हैं और भारतीय शिक्षित नौजवानों की एक पूरी की पूरी पीढ़ी शिक्षा के क्षेत्र में नौकरियों को तरस रही है, क्या यह देश के नौजवानों के लिए “ऐतिहासिक” फैसला कहा जा सकता है?
आरक्षण और सामाजिक न्याय की तबाही: स्वायत्तता के नाम पर ये संस्थान अब छात्रों के दाखिले व शिक्षकों की भर्ती प्रक्रिया में आरक्षण सहित सामाजिक न्याय के सभी साधनों (जैसे डैप्रिवेशन पॉइन्ट) का मज़ाक बना कर रख देने के लिए स्वतंत्र होंगे।
स्वायत्तता के असल अर्थ को पूरी तरह से बदल दिया जा रहा है: जावड़ेकर एन्ड कंपनी हमें बता रही है कि प्रमुख विश्वविद्यालयों को शोध, शिक्षण और ज्ञान के उत्पादन के मामले में शानदार प्रदर्शन के चलते स्वायत्तता दी जा रही है!
जावड़ेकर जी, क्या इस तथ्य को कतई नज़रंदाज किया जा सकता है कि इन विश्वविद्यालयों ने पब्लिक फंडिंग के बूते ही ऐसी अकादमिक श्रेष्ठता हासिल की है?
फिर आखिर आप किस के हित साधने के लिए “स्वायत्ता” के बेहूदे नारे को इस्तेमाल कर इन विश्वविद्यालयों के लिए उस पब्लिक फंडिंग की लाइन काट रहे हैं जो कि इनकी श्रेष्ठता के लिए एक प्रमुख कारण है?
क्या फिर यह सरकार द्वारा नियुक्त किए गए जेएनयू और एचसीयू जैसे विश्वविद्यालयों के उपकुलपतियों के लिए खुली छूट नहीं होगी कि वे अपने संस्थानों को शिक्षा की निजी दुकानें बना दें जिन में सिर्फ धनी और खानदानी रुतबे वाले छात्रों को ही प्रवेश करने का हक हो? जहाँ आर्थिक कार्यक्षमता और लाभप्रदता के नाम पर, आलोचनात्मक शिक्षण नहीं दिया जाएगा, शोध कार्य में अप्रसिद्ध व गैरलाभप्रद विचारों को प्रोत्साहित नहीं किया जाएगा।
इस तरह श्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाले विश्वविद्यालयों को शिक्षा की निजी दुकानें में बदल दिया जाएगा और बड़ी मेहनत से कमाई हुई उनकी ब्रान्ड वैल्यू और उनके अकादमिक मूल्य (कई वर्षों की सामाजिक सहभागिता और जनता के पैसे से समृद्ध हुई शिक्षा/शोध के मजबूत आधार पर टिके हुए) को निजी लाभ कमाने के काम में लिया जाएगा।
मोदी सरकार ने विश्व व्यापार संगठन की तानाशाही और वैश्विक शिक्षा माफियाओं के सामने आत्मसमर्पण कर दिया है: स्वायत्तता का यह मॉडल कुछ और नहीं बल्कि हमारे देश में विश्व व्यापार संगठन की तानाशाही भरी उच्च शिक्षा की नीतियों के सामने मोदी सरकार का आत्मसमर्पण भर है।
विश्व व्यापार संगठन चाहता है कि भारत सरकार उच्च शिक्षा पर पैसा खर्च करना बंद कर दे ताकि यह वैश्विक बाज़ार में एक बिक्री योग्य सेवा बन जाए।
वर्तमान भाजपा सरकार बारम्बार शोध व उच्च शिक्षा के लिए आर्थिक सहयोग समाप्त करने की कोशिश करती रही है। 2015 में इसी सरकार ने नॉन-नैट फैलोशिप रोकने की घोषणा कर दी थी, मगर बाद में जबर्दस्त छात्र आंदोलन के चलते इसकी नीयत का भंडाफोड़ हो गया और इसे अपना निर्णय वापस लेने पर मजबूर होना पड़ा।
2016 से यूजीसी के लिए सरकारी सहयोग में 50% की कटौती कर दी गई और अब वे स्वायत्तता के नाम पर उसी नीति को लागू करने पर तुले हुए हैं।
यह स्वायत्तता उच्च शिक्षा के क्षेत्र में पब्लिक फंडिंग, आरक्षण, सामाजिक सहभागिता, पारदर्शिता और जवाबदेही को नष्ट-भ्रष्ट कर देने की साजिश से अधिक और कुछ नहीं है।
सरकार को फंडिंग से आज़ादी, सरकार द्वारा नियुक्त कुलपतियों को विश्वविद्यालयों के भगवाकरण और व्यवसायीकरण की खुली छूट: यह भी समझ लेना महत्वपूर्ण है कि सरकार का यह कदम मानव संसाधन और विकास मंत्रालय के केन्द्रीय नियंत्रण को बल देने का ही एक प्रयास है।
याद कीजिए! कुलपतियों की नियुक्ति सीधे मानव संसाधन और विकास मंत्रालय द्वारा ही होती है। और वर्तमान सरकार तो कुलपतियों को उनकी अकादमिक और प्रशासनिक योग्यता की बजाय सरकार के प्रति उनकी निष्ठा के आधार पर ही नियुक्त करने के लिए जानी जाती है।
अब, जबकि यूजीसी के किरदार को लगभग खत्म ही कर दिया जा रहा है, तब कुलपति इन विश्वविद्यालयों को सत्ताधारी दल की निजी दुकानों की तरह ही चलाएँगे। जो नए पाठ्यक्रम शुरु किए जाएँगे, वे वर्तमान सरकार की राजनैतिक संरचना से अनिवार्य रुप से बंधे होंगे।
इस तरह, यह स्वायत्तता आज के दौर के राजनैतिक शासन की तानाशाही के अंतर्गत बढ़ रहा भगवाकरण और व्यवसायीकरण ही है!
साथियो, सच्ची अकादमिक स्वायत्तता केवल तब ही कायम हो सकती है जब यह निजी मुनाफाखोरों और सरकार की राजनैतिक तानाशाही सनक से मुक्त हो! मानव संसाधन और विकास मंत्रालय का स्वायत्तता मॉडल असल में इस तरह की कोई भी स्वतंत्रता देने की बजाय विश्वविद्यालयों और शोध कार्य को प्राईवेट फंडिंग और राजनैतिक हस्तक्षेप की दोहरी तानाशाही के अधीन करने की प्रक्रिया ही है!
आइसा मानव संसाधन और विकास मंत्रालय की स्वायत्तता की इस फर्जी घोषणा के खिलाफ कड़ा प्रतिरोध खड़ा करने के लिए प्रतिबद्ध है। हम सभी विश्वविद्यालयों के छात्र-छात्राओं और शिक्षकों से इस कदम के खिलाफ साथ आने की अपील करते हैं!