सुन्दरलाल बहुगुणा और आन्दोलन

सुन्दरलाल बहुगुणा और आन्दोलन

जीवन पर्यंत संघर्षों की गांधीवादी राह के पथिक सुंदरलाल बहुगुणा ने कोरोना से संघर्ष करते हुए इस दुनिया को अलविदा कह दिया. समाज की अपनी गतिकी है. व्यक्ति संघर्षों का चेहरा बनता है तो साथ ही साथ वे संघर्ष भी व्यक्ति को गढ़ते हैं, उसके व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं. जब तमाम लोग बहुगुणा जी को उनके जाने के बाद याद कर रहे हैं तो यह उन तमाम मसलों को याद करना भी है, जिन के साथ वे जीवन भर जूझते रहे.

पेड़, पहाड़, नदियों के संरक्षण के साथ ही समाज में व्याप्त विभिन्न कुरीतियों के खिलाफ भी सुंदरलाल बहुगुणा ने आंदोलन चलाये. एक दौर था टिहरी में जब दलितों के मंदिर प्रवेश के लिए कई आंदोलन चले. सुंदरलाल बहुगुणा ने उन आंदोलनों का नेतृत्व किया. जीवन शैली और गैजेट्स के उपयोग में आई तमाम आधुनिकता के बावजूद जातीय भेदभाव, आज भी हमारे समाज के माथे पर धब्बा है. उत्तराखंड के समाज में जाति की जकड़न बाकी देश के मुक़ाबले ऊपरी तौर पर अंडर करंट जैसी अवस्था में रहती है. लेकिन जब वह उभरती है तो बेहद विकृत रूप में प्रकट होती है. अभी दो साल पहले टिहरी जिले के ही जौनपुर क्षेत्र में एक दलित युवक की शादी में कुर्सी पर बैठने के कारण पीट-पीट कर हत्या हो गयी. कौन कह सकता है कि ऐसी शर्मसार करने वाली घटना उसी टिहरी जिले में 21वीं सदी में हुई, जिसमें सुंदरलाल बहुगुणा जैसे लोगों ने दलितों के मंदिर प्रवेश के आंदोलन चलाये और जिस टिहरी जिले में 1950 के दशक में जातीय जकड़बंदी को तोड़ने के लिए तीन अलग-अलग जतियों के परिवार 12 वर्ष तक संयुक्त रूप से परिवार की तरह एक ही छत के नीचे रहे. निश्चित ही जातीय भेदभाव से मुक्ति की लड़ाई मंदिर प्रवेश से अधिक दिलो-दिमाग से जाति के जहर को बहार निकालने की लड़ाई है और उसे वहाँ तक पहुंचाना ही होगा.

शराब बंदी के संघर्ष बहुगुणा जी और उनकी जीवन संगिनी विमला जी ने चलाये. आज राजस्व का सबसे बड़ा स्रोत बता कर शराब तो सरकारें ही गांव-गांव में पहुंचा रही हैं. शराब को “राजस्व का सबसे बड़ा स्रोत” बताना एक मिथक है,जिसे इसके दुष्प्रभावों को वैधता प्रदान करने के लिए गढ़ा गया है. आज नशा सिर्फ शराब तक सीमित नहीं रह गया है. बल्कि वह जितने रूप में समाज को खोखला कर रहा है,उससे निपटने के लिए बहुत बड़ी लड़ाई की जरूरत है.

जंगल, नदी, पर्यावरण बहुगुणा जी के सबसे बड़े सरोकारों में रहे. दरअसल पर्यावरण की चिंता करना सिर्फ नदी, पेड़, पहाड़ की चिंता करना नहीं है बल्कि यह मनुष्य की चिंता करना भी है. इनके बिना इस धरती पर मनुष्य का अस्तित्व एक क्षण भी संभव नहीं है.

टिहरी बांध के खिलाफ संघर्ष सुंदरलाल बहुगुणा जी के जीवन का बड़ा संघर्ष था. आज टिहरी से कई गुना बड़े पंचेश्वर बांध का खतरा उत्तराखंड के सिर पर मंडरा रहा है. टिहरी के बाद जलविद्युत परियोजनाओं को छोटी, रन ऑफ द रिवर कह कर उत्तराखंड के चप्पे-चप्पे पर कायम करने की कोशिश की गयी. हकीकत यह है कि वे न छोटी हैं,ना ही रन ऑफ द रिवर. वे नदियों की पारिस्थितिकी को ही नष्ट करने वाली सुरंग आधारित परियोजनाएं हैं. उनके दुष्परिणाम 2013 में  हमने देखे और इसी साल 7 फरवरी को उनकी तबाही से हम फिर दो-चार हुए.

जंगलों, नदियों पर समुदायों के अधिकार के बजाय बड़ी पूंजी के एकाधिकार का दौर बहुत तेजी पर है. आज जो विकास का मॉडल हमारे देश में है, प्रकृति के साथ सामंजस्य कायम करने वाला विकास का मॉडल नहीं है बल्कि आक्रांता किस्म का विकास का मॉडल है. विकास के इस विनाशकारी मॉडल से नदी, पहाड़, जंगल और जमीन को बचाने की चुनौती आज बहुगुणा जी के दौर से कहीं बड़ी चुनौती है. अपने हिस्से का संघर्ष उन्होंने किया, आगे का संघर्ष उनकी लड़ाइयों से प्रेरणा और सबक, दोनों लेकर हमें करना होगा.

-इन्द्रेश मैखुरी (पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष, आइसा)   

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