वे लौट रहे हैं…
वे लौट रहे हैं, खुद को घसीटते हुए। अपनी गठरी, मोटरी, बच्चे समेत रेल की पटरियों पर, सड़कों पर, साइकिलों पर, ट्रकों में आलू के बोरों की तरह ठूंसकर, लहूलुहान पैर से हज़ारों मील की अंतहीन यात्रा पर वे निकल पड़े हैं।
कल तक जिन इमारतों को खड़ा करने में वे अपनी सारी रचनात्मकता झोंके हुए थे, छोटी बड़ी फैक्टरियों में किस्म किस्म के सामान बनाते हुए, माल की ढुलाई करते हुए अपनी समूची जीवन शक्ति दांव पर लगा चुके थे अब उन्हीं इमारतों, उन्ही फैक्टरियों, मशीनों और जगमगाते शहर के गली कूचों से अजनबी की तरह वे लौट रहे हैं, जैसे इनसे उनका कभी कोई वास्ता ही नहीं रहा। जिनके होने से शहर का हर कोना जगमगाता था आज उस शहर में उनके लिए सूई की नोंक भर भी जगह नहीं है । ना ही ये शहर उनके पेट के रिक्त स्थान की पूर्ति करने को तैयार है। उनका इस तरह लौटना इस सदी की सबसे भीषण त्रासदी है।
वे लौट रहे हैं और उनके साथ एक अतीत, एक इतिहास वापस लौट रहा है। उनके साथ जमींदार की गाली वापस लौट रही है, उनके साथ दिन भर काम करने के बदले में एक मुट्ठी भर भुना चना और चोटे का रस वापस लौट रहा है, उनके साथ बैल के गोबर के बीच से धोकर छानकर निकाला गया अनाज वापस आ रहा है, जो मजदूर का निवाला बनता था कभी। उनके साथ उनके बच्चों का भविष्य अब अतीत में वापस लौट रहा है जिनका बचपन ढोर चराते और जवानी बाप के कर्जे के बदले गुलामी करने में बीत जाया करती थी। उनके साथ शोषण और यातना का वह बीता हुआ दौर लौट आना चाहता है, जिससे लुका छिपी खेलने के चक्कर में ये मजदूर शहरों की ओर टिड्डी दल की तरह उड़ कर गए थे ।
नहीं, वे शहरों में बसने नहीं गए थे। उन्होंने उन बेवफा शहरों को कभी अपना नहीं माना, उनके लिए शहर हमेशा ही ‘परदेस’ था। उनका अपना ‘देश’ था उनका गांव, जहां ईंट और सीमेंट से बना एक ‘पक्का- मकान’ उनकी जिंदगी की सबसे बड़ी उप्लब्धि है । उनकी सारी जद्दो जहद इस बात की होती है कि शहर से गांव आने पर लोग उन्हें थोड़ा इज्जत दें, जो उन्हें बड़ी मुश्किल से मिल पाती है। मुम्बई से लौटने के बाद गांव की चट्टी पर सब्जी खरीदते हुए जब वे इतराते हुए प्याज को ‘कांदा’ कहते तो उनकी तरफ उठती प्रश्नवाचक निगाहें उनके कलेजे को असीम ठंडक पहुंचातीं । परदेस से लौटा नौजवान अपने साथ म्यूजिक सिस्टम ‘डेक’ जरूर लाता और अपने अधबने घर की छत पर स्पीकर लगाकर गाने सुनता, जो उसकी सामाजिक दावेदारी की घोषणा की तरह होता था।
आज भारत की ट्रेनें उनके लिए नहीं हैं, लेकिन जब वे ट्रेनों से अपने ‘देस’ लौटा करते थे तो वे किसी को भी निराश नहीं करते थे । गाड़ी में फेरी लगाकर सामान बेचने वालों को वे खाली हाथ लौटने नहीं देते, 20 रुपये का नेकलेस-अंगूठी, घर का बैद्य किताब या खाने पीने का कोई भी सामान, वे हर चीज खरीदते थे । इसके साथ ही रेलवे पुलिस से लेकर किन्नरों तक सबका आसान चारा हुआ करते थे वे, लेकिन आज वे भूखे- प्यासे, खाली हाथ छाले भरे पांवों के साथ चले जा रहे हैं।
जहां वे जा रहे हैं वहां भी उनके लिए कोई प्यार करने और दिलासा देने बाहें फैलाये कोई उनकी राह नहीं देख रहा ! वहां कुछ लोग अपना पुराना हिसाब चुकाने बैठे हैं; अब सारे ऊंट पहाड़ के नीचे आ रहे हैं और गिद्ध उनका इंतज़ार कर रहे हैं, कि बहुत उड़ चुके अब हमारी ही शरण में आ गए हो।
जिनके पास एक धूर जमीन नहीं, उनके पास और कोई विकल्प नहीं है। शहरों में मजदूरी का विकल्प खुलने और मनरेगा की वजह से वे अपना श्रम बेचने के मामले में स्वतन्त्र थे, लेकिन अब लौट कर ये गरज़ के मारे मजूर उसी पुराने बंधुआ तंत्र में आ फसेंगे। छोटी-मोटी खेती वाले छोटे मझोले किसान जो अपने खेत से साल- छः महीने के राशन का बंदोबस्त करके हारी- बीमारी, शादी- ब्याह के लिए स्थानीय सूदखोरों से सैकड़े पर बीस टका ब्याज पर उधार लेकर काम चलाते हैं, फिर उस उधार को चुकाने के लिए परदेस का रुख करते हैं, उनके लौटने पर सूदखोरों का ऑक्टोपसी तंत्र उनका इंतज़ार कर रहा है।
पिछले पचास साठ सालों में जो कुछ भी बदला था समाज में, गांव -घर में अब सब कुछ उनके साथ वापस लौट रहा है। क्या हम इस ‘लौटने’ के सिर्फ गवाह भर हैं, क्या हम समय के इस चक्र को वापस घूमने से रोक सकते हैं। क्या इस ‘लौटने’ को हम भविष्य की ओर जाने वाले ‘लांग- मार्च’ में तब्दील कर सकते हैं?
क्या हम अपने समय के लांग मार्च के लिए तैयार हैं?
- डॉ. आर. राम